Thursday, 7 November 2013

ग़ज़ल - जाँ निसार अख्तर

अशआर मेरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं,
कुछ शेर फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं।

अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें,
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं।

आँखों में जो भर लोगे तो काँटों से चुभेंगे,
ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं।

देखूँ तेरे हाथों को तो लगता है तेरे हाथ,...
मंदिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैं।

ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें,
इक शख्स की यादों को भुलाने के लिए हैं।

No comments:

Post a Comment